News Agency : आखिरी तीनों चरणों में पूर्वी यूपी की आधी यानी 40 सीटें आती हैं। इनमें पांचवें चरण की 14 सीटें भी शामिल हैं। अगर मोटे तौर पर देखें तो पहले चारों दौर के मुकाबले अंतिम तीनों दौर में नरेंद्र मोदी फैक्टर ज्यादा मजबूत नजर आता है। हालांकि,अंकगणित पर नजर डालने पर लगता है कि सपा-बसपा गठबंधन को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा। लेकिन, सौ बात की एक बात ये कही जा सकती है कि पूर्वी यूपी में कांग्रेस की मौजूदगी से महागठबंधन का ठोस अंकगणित बिगड़ भी जाय तो असंभव नहीं है। ऊपर से बाकी कई फैक्टर भी हैं, जो पहले के मुकाबले बीजेपी के लिए परिस्थितियों को ज्यादा आसान बनाते नजर आ रहे हैं।
आइए समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर इन संभावनाओं के पीछे के कारण और परिस्थितियां क्या हैं? इकोनॉमिक टाइम्स की खबर के मुताबिक बीजेपी नेताओं को पूरी उम्मीद है कि मोदी के पक्ष में पॉजिटिव सेंटिमेंट और विरोधी खेमे में पैदा हुए कंफ्यूजन ने पूर्वी यूपी में पार्टी की स्थिति पहले से काफी बेहतर कर दी है। इस तर्क के पीछे उनकी दो दलीलें हैं। एक तो पूरा हाइप देकर जिस तरह से आखिरी वक्त में प्रियंका गांधी वाड्रा वाराणसी से चुनाव लड़ने की बात से पीछे हटीं गईं और दूसरा उन्होंने जिस तरह से बीजेपी को हराने के लिए गठबंधन की मदद करने की बात कही। शायद इसलिए बदले हुए राजनीतिक माहौल में मोदी और बीजेपी ने पूर्वी यूपी में और ज्यादा जोर लगा दिया है।
माना जा रहा है कि पीएम मोदी इस क्षेत्र में 15 से ज्यादा चुनावी रैलियां करने जा रहे हैं, जो कि पश्चिमी यूपी से संख्या में ज्यादा है। जबकि, अखिलेश यादव और मायावती समूचे उत्तर प्रदेश में सिर्फ 11 साझा रैली ही कर रही हैं। बाकी जगहों पर दोनों अलग-अलग चुनावी सभाएं कर रहे हैं। यानी वे माने बैठे हैं कि जमीनी अंकगणित उनके पक्ष में हैं। महागठबंधन की इस उम्मीद का कारण ये है कि उन्हें लगता है कि पश्चिमी यूपी यूपी में उनके इस अंकगणित ने बहुत अच्छा काम किया है, इसी कारण वे ज्यादा ही निश्चिंत हो गए हैं। जबकि, हकीकत ये है कि कांग्रेस ज्यादातर सीटों पर बीजेपी से ज्यादा एसपी-बीएसपी का खेल बिगाड़ती नजर आ रही है। अवध के इलाके समेत समूचे पूर्वी यूपी में कम से कम 7 सीटें ऐसी हैं, जिसे किसी न किसी पार्टी या परिवार का गढ़ माना जाता है। इसमें पांचवें चरण की लखनऊ, रायबरेली और अमेठी समेत सुलतानपुर, वाराणसी, आजमगढ़ और गोरखपुर की सीटें भी शामिल हैं।
अगर मौजूदा चुनाव की बात करें तो इनमें से अमेठी को छोड़कर बाकी सभी 6 सीटों पर परंपरागत पार्टियों और उम्मीदवारों की स्थिति अच्छी मानी जा सकती है। लेकिन, अमेठी की लड़ाई इस बार कांग्रेस के लिए उतनी आसान नहीं दिखी है। अमेठी की बगल की सुलतानपुर सीट में भी मेनका गांधी की काफी मेहनत के बाद स्थिति थोड़ी बेहतर हुई लगती है। उन्होंने अपने बेटे वरुण गांधी से यह सीट बदली है। उन्होंने पिछले हफ्ते जोरदार अभियान चलाया और अब कहा जा सकता है कि उन्होंने अपना चांस पहले से काफी बेहतर कर लिया है। मेनका गांधी ने मुसलमानों को लेकर जो विवादित बयान दिया था, उसे सुधारने के लिए वरुण ने भी पूरा जो लगाया है। आजमगढ़ की बात करें, तो भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ ने क्षेत्र के लोगों का दिल जरूर जीता है।
लेकिन अखिलेश यादव जब प्रचार शुरू करेंगे, तो हवा उनके पक्ष में बहने की पूरी संभावना है। जहां तक गोरखपुर की बात है, तो योगी आदित्यनाथ उप चुनाव के परिणाम को पलटने के लिए अपना हर कुछ दांव पर लगा चुके हैं। उप चुनाव में कम वोटिंग और उनके पसंद का उम्मीदवार नहीं होने के चलते पार्टी को खामियाजा भुगतना पड़ा था। लेकिन, अब निषाद समाज बीजेपी के साथ दिख रहा है और गोरखपुर के सांसद प्रवीण निषाद बीजेपी के टिकट पर संत कबीर नगर से मैदान में हैं। रविवार को मुख्यमंत्री गोरखपुर में निषाद सम्मेलन भी आयोजित करा चुके हैं। प्रियंका गांधी वाड्रा बाद में भले ही अपने बयान से पलट गई हों, लेकिन उन्होंने ‘वोट कटवा’ वाले बयान से एक तरह से बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस की रणनीति का खुलासा कर दिया था। यही बात अब कई सीटों पर नजर भी आ रही है, अलबत्ता हो सकता है कि कांग्रेस का आंकलन ही उल्टा पड़ जाए। मसलन, संत कबीर नगर सीट की बात करें तो निषाद आबादी को देखते हुए भाजपा ने इस बार प्रवीण निषाद को यहां से चांस दिया है।
लेकिन, कांग्रेस ने बालचंद्र यादव को उतार कर महागठबंधन का टेंशन बढ़ा रखा है। यह सीट बीएसपी के खाते में गई है, इसलिए यादव एसपी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और उन्हें भरोसा है कि यादव-मुस्लिम उनके लिए ही वोटिंग करेंगे। जबकि, बसपा ने यहां एक ब्राह्मण उम्मीदवार पर दांव खेला है, क्योंकि बीजेपी ने अपने जूता मार सांसद शरद त्रिपाठी का पत्ता काट दिया है। इसी तरह अगले दो दौर की कुछ और सीटों पर भी बीजेपी की जीत की संभावना बढ़ी हुई नजर आती है। जैसे- बलिया सीट पर समाजवादी पार्टी ने पूर्व पीएम चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को टिकट नहीं दिया है, यह बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। यहां पर कांग्रेस ने अपना कोई प्रत्याशी ही नहीं उतारा है।
अंबेडकर नगर और बासगांव में भी पार्टी प्रत्याशियों का नामांकन रद्द हो चुका है। देवरिया सीट पर भी बीजेपी के उम्मीदवार रामपति त्रिपाठी को अच्छा समर्थन मिल रहा है, जिन्हें कलराज मिश्र की जगह मैदान में उतारा गया है। कहा जा रहा है कि इनके बेटे शरद त्रिपाठी का टिकट कटने के बाद इनकी स्थिति अच्छी मानी जा सकती है। यही नहीं 12 तारीख को पीएम मोदी की रैली से उनकी स्थिति और बेहतर होने की संभावना है। डुमरियागंज में भी महागठबंधन उम्मीदवार आफताब आलम और कांग्रेस के बीच मुकाबले से बीजेपी के जगदंबिका पाल को मदद मिल सकती है। अलबत्ता बस्ती सीट बीजेपी के लिए जरूर चुनौती लग रही थी, लेकिन मोदी की रैली के बाद इसकी भी उम्मीदें बढ़ गई हैं।
अगर पूर्वी यूपी की बात करें तो यहां कांग्रेस के ‘न्याय’ पर बीजेपी का राष्ट्रवाद पूरी तरह से हावी नजर आ रहा है। हालांकि, ‘न्याय’ को लेकर पश्चिमी यूपी की तुलना में पूर्वी यूपी में ज्यादा जागरुकता जरूर दिख रही है, लेकिन लोगों के लिए यह भरोसा करना कठिन है कि कांग्रेस के जीतने पर उन्हें हर साल 72,000 रुपये मिलेंगे ही। यह आशंका दूर करने के लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने महाराजगंज में खुद काफी पसीना भी बहाया है। उन्होंने कहा है कि, “जॉब के बाद ‘न्याय’ ही वह विषय है, जिसकी सबसे ज्यादा गूंज सुनाई दे रही है।
कांग्रेस को यह संदेश जरूर फैलाना चाहिए और इसीलिए मैं यहां आया हूं। जिन राज्यों में साक्षरता दर ज्यादा है, वहां ‘न्याय’ का संदेश ज्यादा फैला है- यूपी बड़ा राज्य है और यहां साक्षरता दर थोड़ी कम है, लेकिन लोग अब सामान्य तौर पर ‘न्याय’ से अवगत हैं।” जाहिर है कि कांग्रेस अपने पूरे प्रयास में जुटी हुई है, लेकिन वह इससे बीजेपी के राष्ट्रवाद को चुनौती दे पाएगी, कम से कम पूर्वी यूपी के लिए तो यह कहना बहुत ही मुश्किल है।महागठबंधन यह मानकर चल रहा है कि पूर्वी यूपी में भी आवारा पशुओं का मामला बीजेपी के खिलाफ अंडर-करंट की तरह काम कर रहा है। जाहिर है कि राज्य के किसानों के सामने पिछले कुछ महीनों में यह समस्या बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। लेकिन, लोकसभा के चुनाव में यह मुद्दा ईवीएम में बटन दबाते वक्त तक भी मुद्दा रहेगा यह कहना कठिन लगता है।
इसी तरह पूर्वी यूपी के मतदाताओं के सामने दो और बड़े फैक्टर काम कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी। दोनों नेता इसी इलाके से चुनाव मैदान में हैं। लेकिन, जमीनी हालातों को समझने के बाद यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि मोदी की तुलना में राहुल का प्रभाव अमेठी से बाहर कहीं नजर नहीं आता। इकोनॉमिक्स टाइम्स ने तो जमीन पर यही पाया कि ‘मोदी को पीएम’ बनाने के लिए लोग ज्यादा उत्साहित नजर आ रहे हैं।